Tuesday, April 21, 2009

विदाई

" विदाई "
क्या सुनाऊ मैं तुम्हें ये दास्ताँ अपनी ,

यह है मेरी जुबानी एक कहानी अपनी !
मैं एक कली थी ,
जो एक बाग़ में खिली थी !
मेरे चेहरे पर एक अधखिली मुस्कान थी ,
जिसकी गवाह ये धरती और ये फिजां थी !
बाग़ के माली ने बड़े प्यार से संवारा था मुझे ,
आंधी और तूफानों में संभाला था मुझे !
पल्लवन के बाद जब मैं फूल थी बनी ,
माली के चेहरे पर एक मुस्कान थी भली !
मेरा खिलना माली के प्रयासों का फल था ,
कुसुमित हुआ मेरा चेहरा , ये क्या कम था ?
लेकिन एक दिन वक्त की आंधी ने मेरे जीवन को ऐसा झकझोरा ,
मेरी कोमल-सी पंखुडियों को एक ही पल में बिखेरा !
वह दिन था मेरे जीवन का अन्तिम क्षण ,
जिसने छीन लिया मेरी उस मृदुल मुस्कान को !
उस दिन माली की आंखों में ऐसा मर्म था छाया ,
जैसे एक पिता ने अपनी बेटी को डोली में था बिठाया !
वह दिन था माली का कली से जुदाई का ,
वह दिन था एक कली की विदाई का !

- सोनल पंवार

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